12 April 2015

ओएलएक्स और क्विकर के दौर में...

पाखी पत्रिका में लोकप्रिय साहित्य पर आयोजित बहस में यह लेख भी शामिल है. लेखक मानता है कि एक कायदे के लेख में जिस तरह की तर्क-प्रणाली विकसित की जानी चाहिए, उसका यहाँ अभाव है.. फिर भी उम्मीद है कि अपनी सीमाओं में यह लेख लोकप्रिय साहित्य पर बहस के नए सूत्र देगा...आप बेबाकी से टिप्पणी करें, तो बात आगे निकलेगी.     
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 भला मेरी रासायनिक करुणा से
भरोसेमंद क्या होगा!
आप अभी नौजवान हैं।
वक्त है कि सीख लें
अपने आपको ढीला छोड़ देना
कोई जरूरी नहीं कि मुट्ठियां
हमेशा भिंची और चेहरा तना रहे।
अपने खालीपन को मुझे दे दो।
मैं उसे नींद से भर दूंगा...’’
- विस्लावा शिम्बोर्स्का  



खालीपन एक जीवन स्थिति है और कला का अस्तित्व इस खालीपन के कारण ही है। खालीपन विचार की उर्वर जमीन है। इस खालीपन को खत्म कर दें, आदमी खत्म हो जायेगा। बीसवीं सदी की महानतम कवयित्री विस्लावा शिम्बोर्स्का  जब इस खालीपन को नींद से भरने की बात करती हैं, तो वे कहीं न कहीं, हमसे हमारे खालीपन के अधिकार के छिन जाने की चिंता व्यक्त कर रही होती हैं। हम एक ऐसे युग में प्रवेश कर चुके हैं, जिसमें हमारे जीवन पर से हमारा अधिकार छीज चुका है। हमारा खालीपन भी हमारा नहीं है। हमारे पास दो विकल्प हैं- इसे नींद की गोलियों के सहारे मिलने वाली तंद्रा से भरा जाये, या इसे तकनीक संचालित बाजार के हवाले कर दिया जाये। कुछ वर्ष पहले तक यह कहना आम चलन था कि यह बाजार का युग है। यह बात आज पुरानी लगती है। आज के युग की रफ्तार इतनी ज्यादा है कि हर युग तुरंत व्यतीत हो जाता है। आज व्यक्ति बाजार के युग में नहीं जी रहा है, वह खुद बाजार हो गया है। उसे कल तक सिर्फ उपभोक्ता बनाया गया था। आज उसे खरीदार, विक्रेता, वस्तु, सर्विस प्रोवाइडर, सबकुछ बना दिया गया है। आदमी के खालीपन पर बाजार ने पूरी तरह कब्जा जमाने की मुहिम छेड़ रखी है। टीवी पर पिछले एक वर्ष से आनेवाले ‘ओएलएक्स’ और ‘क्विकर’ के विज्ञापन इसकी सबसे मुखर घोषणा हैं। ‘ओएलएक्स’ हर व्यक्ति को बाजार में शामिल करने का आमंत्रण देते हुए कहता है, ‘अपने फोन को बनाओ सेल्ल फोन’ और उसके अस्तित्व की सार्थकता के लिए एक पंच लाइन देता है- ‘ओएलएक्स पर बेच डाला’। क्विकर का विज्ञापन है- ‘नो फिकर, बेच क्विकर’। यानी बेचो-बेचो-बेचो- खरीदो-खरीदो-खरीदो। फ्लिप कार्ट, अमेजन डाॅट काॅम, स्नैपडील के रूप में बाजार हमारे घरों में ही नहीं, हमारी चेतना में, हमारे हर खाली लम्हे में दाखिल हो गया है। संभवतः हमारे समय का सबसे बड़ा संकट यही है, क्योंकि यह इनसान की परिभाषा बचाए रखने का संकट है। साहित्य का समय-समाज इससे अलग नहीं है। सूचना-तकनीक के जाल से हर क्षण करोड़ों की संख्या में हम तक पहुंचनेवाली जरूरी-गैर जरूरी सूचनाओं ने हमें ढक लिया है। ऐसे में यह कहना सिर्फ दिल को तसल्ली देनेवाला ही हो सकता है कि साहित्य, सूचना, तकनीक और बाजार के खिलाफ प्रतिपक्ष तैयार करता है। इस बाजारीकृत- मीडियाकृत समय-समाज में साहित्य की कल्पना पुराने पारंपरिक, आदर्शवादी ढंग से नहीं की जा सकती है।

लोकप्रिय साहित्य (पाॅपुलर लिटरेचर) और कलात्मक साहित्य (हाइ ब्रो लिटरेचर) को लेकर चलनेवाली बहस का नया दौर वास्तव में अपने समय में साहित्य की भूमिका, उसकी परिभाषा, उसकी सामाजिक उपयोगिता और अंततः और सबसे महत्वपूर्ण रूप से बाजार से उसकी अंतक्र्रिया के प्रश्न से जुड़ा है। हम अपनी बात, अतीत और विगत हो रहे वर्तमान से शुरू कर सकते हैं। हिंदी में इस बात को लेकर बहस रह-रह कर उठती है कि हमारा साहित्य लोकप्रिय नहीं है और हम लोकप्रिय साहित्य को अपना नहीं मानते हैं। लोकप्रिय साहित्य के समर्थक पाठक-संख्या को आधार बना कर साहित्यिक बिरादरी पर हल्ला बोलते हैं कि आपका साहित्य कठिन और पाठकों की समझ से परे है। लोक और जन को जो साहित्य समझ में ही न आये, उसकी जरूरतों को पूरा न करे, जिसकी बिक्री ही न हो, ऐसे साहित्य का भला क्या करें? उसकी उपयोगिता क्या है? दूसरी ओर साहित्यिक बिरादरी लोकप्रिय साहित्य को साहित्य ही मानने से इनकार करती है और लोकप्रिय साहित्य को महज मनोरंजनवादी कहकर उसे लगभग खारिज कर देती है। ये दोनों अतिवादी स्थितियां हैं। हिंदी जगत में पाॅपुलर (लोकप्रिय) बनाम हाई ब्रो (कलात्मक) साहित्य की बहस वास्तव में साहित्य की सबकी अपनी-अपनी या कहें मनमाने परिभाषा के कारण है, न कि लोकप्रिय और उच्च साहित्य के बीच किसी वैर-भाव के कारण।
लोकप्रियता किसका काम्य नहीं है? हर साहित्यकार यह चाहता है कि उसकी किताब को ज्यादा से ज्यादा लोग पढ़ेें। यही उसकी रचना की सफलता और सार्थकता है। लेकिन, लोकप्रियता की धारणा सिर्फ संख्यात्मक ही नहीं है, कालिक भी है। इसकी स्थिति टाइम एंड स्पेस यानी दिक्-काल में है। अफ्रीका के महान उपन्यासकार चिनुआ अचीबी के उपन्यास ‘थिंग्स फाॅल अपार्ट’ को विश्व की अनेक भाषाओं में अनूदित किया गया और उनकी मृत्यु के वक्त अखबारों-पत्रिकाओं ने यह सूचना दी कि इस किताब की पांच करोड़ से ज्यादा प्रतियां बिक चुकी हैंे। ऐसी ही स्थिति गैब्रियल गार्सिया माक्र्वेज के उपन्यास ‘वन हंड्रेड इयर्स आॅफ साॅलीट्यूड’ और जाॅन स्टाइनबेक के उपन्यास ‘ग्रेप्स आॅफ रैथ’ की है। ऐमिली ब्रौंटे की ‘प्राइड एंड प्रीजूडिस’, अर्नेस्ट हेमिंग्वे की ‘द ओल्ड मैन एंड द सी’, प्रेमचंद के ‘गोदान’ श्रीलाल शुक्ल के ‘रागदरबारी’ और अनेक दूसरे उपन्यासों के लिए भी यही कहा जा सकता है। ये उपन्यास खूब पढ़े गये हैं। विकिपीडिया पर सौ सबसे ज्यादा पढ़े गये लेखकों की सूची में शेक्सपियर सबसे ऊपर हैं और उनकी किताबों की बिक्री का अनुमान दो अरब से ज्यादा है। लेकिन, इन लेखकों को लोकप्रिय लेखक की श्रेणी में नहीं रखा जाता। हिंदी में प्रेमचंद और श्रीलाल शुक्ल के नामों का उपयोग इस आरोप का जवाब देने के लिए किया जाता है कि हिंदी उपन्यास पढ़े नहीं जाते। धर्मवीर भारती के उपन्यास ‘गुनाहों का देवता’ और सुरेंद्र वर्मा के उपन्यास ‘मुझे चांद चाहिए’ को साहित्यिक बिरादरी में बहुत गंभीरता से नहीं लिया जाता, लेकिन इनकी लोकप्रियता असंदिग्ध है। यह तब है जब ‘मुझे चांद चाहिए’ को साहित्य अकादमी पुरस्कार से भी नवाजा गया है। ‘मुझे चांद...’ के बाद हिंदी के कलात्मक साहित्य (हाई ब्रो लिटरेचर) में ऐसी कोई रचना नजर नहीं आती, जिससे ‘लोकप्रियता’ शब्द को जोड़ा जा सके।  इसके बावजूद ‘गुनाहों के देवता’ और ‘मुझे चांद चाहिए’ को लोकप्रिय साहित्य की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। विश्व में क्लासिक कही जाने वाली रचनाएं लंबे समय से अपनी प्रासंगिकता बनाये हुए हैं, मगर इनके रचनाकार ‘महान’ तो कहलाते हैं, पाॅपुलर/लोकप्रिय नहीं कहे जाते।

अंग्रेजी में किसी उपन्यास की लोकप्रियता बताने के लिए ‘क्रिएटेड अ स्टाॅर्म, (एक तूफान ले आया) ‘फ्लडेड द मार्केट’ (बाजार में बाढ़ ले आया), ‘बिकेम अ क्रेज’ (दीवानगी बन गयी) जैसे पदों का इस्तेमाल किया जाता है। ये किताबें तूफान की तरह आती हैं और बरस कर चली जाती हैं। लोकप्रियता एक आवेग है। एक तूफान है। तूफान का समय सीमित होता है। वह ठहरता नहीं है। एक तूफान में अक्सर इतनी बारिश हो जाती है, जितनी बारिश पूरे साल में नहीं होती। लोकप्रिय संस्कृति ऐसे तूफानों को ही सेलिब्रेट करती है। धीरे-धीरे बरसनेवाले मेघ से रस पीने की न उसके पास फुर्सत है, न धैर्य। बड़े लेखकों की प्रसिद्धि लंबे दिक्-काल में होती है। वे इतिहास में दर्ज अक्षर के समान होते हैं, जिन्हें लोग इत्मीनान से पढ़ते हैं। जबकि लोकप्रिय साहित्य का अभ्यासकर्ता अखबार में छपे खबर की तरह होता है, जिसे सुबह के वक्त लाखों लोग पढ़ रहे होते हैं और शाम तब भुला दिये जाते हैं।

असल बहस पाॅपुलर बनाम हाई लिटरेचर की नहीं है। यह बहस है साहित्य की परिभाषा की। सवाल यह है कि क्या हर लिखा हुआ शब्द साहित्य है? क्या हर लेखक को यह मांग करनी ही चाहिए कि उसने जो लिखा है, उसे साहित्य की श्रेणी में रखा जाये? लोकप्रिय माध्यम में लोकप्रियता के सामने कलात्मक मानदंडों की बात भुला दी जाती है, लेकिन साहित्य के मामले में ऐसा नहीं किया जा सकता। सिनेमा की प्रकृति ऐसी है कि एक साथ सैकड़ों लोग उसका ‘उपभोग’ कर रहे होते हैं, लेकिन कोई किताब जन-प्रिय होने के बावजूद सामूहिक रूप से नहीं पढ़ी जा सकती।

लोकप्रिय साहित्य पर किसी बहस में पड़ने से पहले हमें खुद से यह सवाल पूछना चाहिए कि आखिर हम साहित्य से क्या चाहते हैं? इसी के साथ यह सवाल जुड़ा है कि आखिर साहित्य है क्या? आखिर साहित्य क्या काम करता है? साहित्य का काम क्या है, इस सवाल के कई जवाब मिलते हैं। इस सवाल को समझने के लिए अतीत की थोड़ी धूल उड़ाना फायदेमंद साबित हो सकता है। भारतीय काव्यशास्त्रियों ने इस विषय पर विस्तार से लिखा है। साहित्य की शुरुआती परिभाषा को देखें, तो प्रसिद्धि की प्राप्ति, धन कमाना, आनंद आदि को साहित्य का उद्देश्य माना गया है। तुलसीदास ने साहित्य को स्वांतः सुखाय भी माना है और लोकमंगल करनेवाला भी। पश्चिम में प्लेटो से लेकर वड्र्सवर्थ तक की परंपरा को देखें, तो वहां भी घुमा-फिर कर साहित्य को लेकर ऐसा ही नजरिया दिखता है। लेकिन, आधुनिकता साहित्य को इतनी पवित्र वस्तु नहीं मानती। आधुनिकता साहित्य को जीवन की व्याख्या मानती है। उसके अनुसार यह बिखरे हुए जीवन में संगति लाने की कोशिश है।

साहित्य की परिभाषाओं से यह बात निकलती है कि साहित्य महज कोई कमोडिटी नहीं है, जिसका उपभोग किया जाता है। सवाल है कि साहित्य अगर कमोडिटी नहीं है, तो फिर पाठक के साथ इसका संबंध किस तरह का है? निर्मल वर्मा ने लिखा है, ‘‘...प्रश्न उठता है कि साहित्य और बाकी लिखे हुए ‘टेक्स्ट’ में क्या अंतर है? ...मेरे ख्याल से इसका एक ही उत्तर है। बाकी लिखे हुए ‘टेक्स्ट’ सिर्फ साधन हैं, माध्यम हैं, वे एक तरह से कंज्यूमरिस्ट कमोडिटी’ की तरह इस्तेमाल किये जा सकते हैं। जबकि साहित्य की रचना अपने में लक्ष्य है। वह किसी चीज को प्राप्त करने का साधन नहीं है। दरअसल, वह ‘साधन’ है ही नहीं, वह अपने आप में साध्य है। निर्मल वर्मा ने आगे लिखा है, ‘‘ कई लोग कहते हैं कि कला जिंदगी को बदल देती है। कई लोग कहते हैं कला हमें बदल देती है। मैं समझता हूं कि कला न तो हमें बदलती है, और न हमारी जिंदगी में कोई सुधार या रेडिकल चेंज ला पाती है। कला एक दूसरा ही काम करती है। एक बड़े परोक्ष ढंग से, और बड़े ही नरम ढंग से, बिना बोले हुए, चुपचाप हमारा आसपास की जिंदगी से रिश्ता बदल देती है। और एक बार जब रिश्ता बदल जाता है तो न मैं वैसा ही रहता हूं जैसा कि किताब पढ़ने से पहले था और न ही दुनिया वैसी रह जाती है, जो वह किताब पढ़ने से पहले मुझे दिखाई देती थी।’’

इस तरह देखें, तो साहित्य पढ़ना खुद को बदलना है। अपनी संवेदनशीलता के रुखरे कोनों को घिसकर उसे थोड़ा चमकाना है। आत्मा पर चढ़ी हुई मैल को थोड़ा खुरचना है। क्या मैक्सिम गोर्की की ‘मां’ को पढ़ने के बाद पाठक पहले जैसा रह पाता है? क्या ‘मां’ को पढ़ने के बाद कोई पाठक पेलागेला निलोवना के चरित्र की उदात्तता का एक अंश अपने भीतर महसूस नहीं करता? माक्र्वेज का ‘वन हंड्रेड इयर्स आॅॅफ सालिट्यूड’ पढ़ने के बाद क्या कोई कथा हमारे भीतर होती है, या एक आवेशित परिवेश होता है, हम खुद को जिसके भीतर महसूस करते हैं? क्या जाॅन स्टाइनबेक का उपन्यास ‘ग्रेप्स आॅफ रैथ’ की कहानी सिर्फ अमेरिकी महामंदी की कथा रह जाती है? क्या ‘मुर्दहिया’ और ‘जूठन’ जैसी दलित आत्मकथाएं पढ़ने के बाद अचानक हम यह महसूस नहीं करते कि अवचेतन रूप से जिस समाज-व्यवस्था और जाति-विन्यास में हम बंधे हुए हैं, वह विन्यास सवर्ण बस्ती से दलित बस्ती के बीच की सदियों लंबी दूरी पार करके अचानक हमारे सामने प्रकट हो गया है और हमसे सवाल पूछ रहा है? साहित्य हमारे परिवेश को बदल देता है। साहित्य अप्रकट दुनिया का प्रकटीकरण है। परिचित का अपरिचितीकरण है। दीवार में खिड़की का उग आना है, जो हमें एक नयी दुनिया में दाखिल होने का निमंत्रण देती है। 

क्या जिसे हम लोकप्रिय साहित्य कहते हैं, वह भी यह काम करता है? लोकप्रिय साहित्य क्या पाठक के जीवन के जीवन में ऐसा कोई बदलाव लाता है? क्या अगाथा क्रिस्टी के जासूसी उपन्यास या देवकीनंदन खत्री का चंद्रकांता संतती यह काम करते हैं? क्या सुरेंद्र मोहन पाठक, गुलशन नंदा के उपन्यास यह काम करते हैं? क्या डैन ब्राउन, अमीश त्रिपाठी, चेतन भगत के उपन्यास ऐसा करते हैं? उत्तर होगा नहीं। लेकिन, इतने मात्र से इन उपन्यासों की उपयोगिता या उनका महत्व कम नहीं हो जाता। ये उपन्यास पाठकों का मनोरंजन करने का दावा करते हैं। उन्हें ‘इनगेज’ करते हैं। उनके खालीपन को कथा से भरते हैं। जो लोग यह नहीं समझते कि ‘कथा’ (स्टोरी) या कथानक (प्लाॅट) की उपस्थिति ही उपन्यास नहीं है, और जो साहित्य से इससे ज्यादा की मांग नहीं करते, उनके लिए ये उपन्यास ही हैं। वे उपन्यास के पास अपनी आत्मा की गिरहें खोलने के लिए नहीं आते। वे अपने अधूरेपन को शब्द के सहारे पूरा करने के लिए भी साहित्य के पास नहीं आते। साहित्य को लेकर उनकी दृष्टि उपयोगितावादी होती है। वे मनोरंज चाहते हैं। ऐसे लोगों की संख्या किसी भी समाज और समय में ज्यादा होती है। इसलिए जो साहित्य इस जन-समूह की मनोरंजन की जरूरत को पूरा करता है, वह अक्सर लोकप्रिय भी होता है। साहित्य की प्राचीन परिभाषाओं के हिसाब से देखें, तो हम यह याद किये बगैर नहीं रह सकते कि साहित्य के शुरुआती लक्ष्यों में ‘मनोरंजन करना’ प्रमुख था। ऐसे में मनोरंजनपरक लोकप्रिय साहित्य को साहित्य से बाहर करने या उसे खारिज करने को सही नहीं कहा जा सकता है। ठीक इसी तरह से लोकप्रियता के पैरोकारों की यह मांग कि उनके लेखन को कलात्मक लेखन के बरक्स रख कर देखा जाये और बिक्री की संख्या के आधार पर उसे श्रेष्ठ साबित किया जाये, भी सही नहीं है। वास्तव में लोकप्रिय और कलात्मक साहित्य की स्थिति समाज में समानांतर होती है। वे एक-दूसरे की जगह छीनने की कोशिश नहीं करते। जैसे कलात्मक लेखक, लोकप्रियता की इच्छा रखता है, वैसे लोकप्रिय लेखक भी कलात्मक कहलाने की इच्छा रखता है। दोनों को अपनी इच्छाओं के साथ रहने के लिए स्वतंत्र छोड़ देना चाहिए।
लोकप्रिय साहित्य बाजार में एक उपभोग की कमोडिटी के तरह आता है, जो लोगों से ‘पैसा वसूल’ होने का वादा करता है। बाजार के लिए व्यक्ति का खालीपन एक संभावना है और लोकप्रिय साहित्य इसी संभावना को पूरा करने का उत्पाद।



पिछले दिनों आयी टीवी पत्रकार रवीश कुमार की किताब ‘इश्क में शहर होना’ के बहाने हम अपने समय और साहित्य के बीच बन रहे नये रिश्ते के बारे में बात कर सकते हैं। इस किताब को प्रकाशक ने ‘फेसबुक फिक्शन श्रृंखला’ के नाम से प्रकाशित किया है। कहने को ये लघु प्रेम कथाएं हैं, जिसका शाॅर्ट फाॅर्म ‘लप्रेक’ किया गया है, लेकिन वास्तव में ये खास मनोदशा में लिखे गये संक्षिप्त नोट्स हैं। फेसबुक यों तो सामाजिक नेटवर्किंग की साइट है, लेकिन समाजशास्त्रीय नजरिए से देखें, तो यह हमारे खालीपन को भरने का माध्यम है। यानी कभी जो काम साहित्य की किताब किया करती थी, उसे अब फेसबुक करता है। फेसबुक के साथ शब्दों की अंतक्र्रिया ने साहित्य की नयी विधाओ को जन्म दिया है। इनमें इनमें ‘लिखी जा रही कविता’, ‘लिखी जा रही कहानी’ आदि के साथ ‘लघु प्रेम कथा’ भी एक विधा है। फेसबुक हड़बड़ी का माध्यम है। यह फुर्सत का माध्यम नहीं है, ‘निष्क्रिय सक्रियता’ का माध्यम है। किताब के पन्ने पर पाठक का नियंत्रण होता है, फेसबुक के खुले हुए पन्ने पर यूजर का नियंत्रण नहीं होता है। वहां साहित्य ‘नोटिफिकेशन’ और ‘न्यूज फीड’ की कैद में है। एक ‘नोटिफिकेशन’ को दबाते हुए देखते ही देखते दर्जनों नोटिफिकेशंस और न्यूज फीड चले आते हैं। लिखा हुआ शब्द इनके नीचे दब जाता है। रवीश कुमार ने ‘लघु प्रेम कथा’ की जो श्रृंखला फेसबुक पर लिखी उसका संचालक भी हड़बड़ी है। जैसे बिजली हड़बड़ी में चमकती है, उसी तरह से फेसबुक की पोस्ट को चमकना होता है। जाहिर है, इस चमक के लिए साहित्य की जरूरी शर्त- ‘संदर्भ’ से समझौता किया जाता है। ‘आगे क्या?’ पर सोचने के लिए चूंकि पाठक के पास अवकाश नहीं है, इसलिए इसका लेखक भी इसके बारे में ज्यादा नहीं सोचता।
वस्तुतः मीडियाकृत समाज में शुरुआती लक्षण के तौर पर प्रकट हो रहे ये साहित्य रूप भविष्य की ओर संकेत करते हैं। इसे साहित्य का भविष्य भले न कहा जाये, लेकिन इनसे भविष्य के साहित्यिक रूपों के बारे में कल्पना जरूर की जा सकती है। ऐसी रचनाएं, जिनमें ‘लिखी जा रही कविताएं’, लिखी जा रही कहानियां’ भी शामिल हैं, वास्तव में हमारे विखंडित खालीपन को छोटी-छोटी चमक से भरने का काम करती हैं। जैसा हमारा खालीपन होगा, वैसा हमारा साहित्य होगा। अगर हमारी नियति टुकड़ों-टुकड़ों में बंटा हुआ, बाजार के संदेशों से भरा हुआ खालीपन है, तो हमारा साहित्य इससे प्रभावित हुए बगैर नहीं रह सकता। आनेवाला वक्त कलात्मक साहित्य से ज्यादा लोकप्रिय साहित्य के लिए चुनौतीभरा वक्त होगा, क्योंकि यह जिस खालीपन को मनोरंजन से भरने का काम करता रहा है, उस खालीपन का मालिक पाठक की जगह बाजार होनेवाला है। 

'पाखी ' के ताजा अंक में प्रकाशित.

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