29 December 2013

आत्मा से बादलों पर चलूँ...

राजस्थानी लोक-कथाओं को नया जीवन देनेवाले कथाकार विजयदान देथा (बिज्जी) ने 10 नवंबर को भले इस दुनिया को अलविदा कह दिया, लेकिन उनके शब्दों की उपस्थिति हमारे जीवन में हमेशा बनी रहेगी. नजदीकी मित्र अनिल बोर्दिया को लिखे पत्र में बिज्जी ने अपने सृजन और काफी कुछ अपने जीवन के बारे में भी लिखा था. यह खत बिज्जी के लेखकीय सरोकारों को समझने की कुंजी कहा जा सकता है. प्रस्तुत है उस पत्र का संपादित अंश.


सन 1958 के किसी शुभ दिन मैंने पुख्ता सोच-समझकर निर्णय लिया कि हिंदी की बजाय राजस्थानी में लिखे बिना मेरी कहानियां आकांक्षित ऊंचाइयों तक नहीं उड़ सकतीं, तब से 28 वर्ष तक विभिन्न फलों की ‘फुलवाड़ी’ सींचता रहा. संवारता रहा. पर तुम कई बार मुङो मीठे ढंग से समझाते रहे कि हिंदी की बजाय राजस्थानी में लिखने का निर्णय अव्यावहारिक, असंगत और आत्मघाती है.

हिंदी का दायरा राष्ट्रव्यापी है और राजस्थानी का एकदम सीमित. प्रांतीय मान्यता और शिक्षा के अभाव में प्रशिक्षित वर्ग बड़ी मुश्किल से तैयार हो पायेगा. तब तुम्हारा सोचना था कि मेरा संकल्प अनुचित है. समय-सापेक्ष नहीं है. और जब ‘रूंख’ की सघनता के बाद हिंदी में फिर से लिखना प्रारंभ किया, तो तुम्हारा पुरजोर आग्रह है कि मुङो केवल राजस्थानी में ही लिखना चाहिए. अनुवाद का काम तो कोई भी कर लेगा, पर मैं फकत अनुवाद ही तो नहीं करता, अनिल. हिंदी में फुलवाड़ी की कथाओं को पुन:सृजित करता हूं. राजस्थानी ‘बात’ का वजन, उसकी ध्वनि, उसके छिपे अर्थ जो व्यक्त के द्वारा अव्यक्त की ओर संकेत करते हैं, प्रच्छन्न मौन को मुखरित करते हैं - यह सब प्रखर हो जाता है. बहुत-कुछ बदल जाता है. कथानक वे ही हैं. पर कहानी के आयाम बदल जाते हैं. इसलिए कि मैं निरंतर बदलता रहता हूं. कहूं कि परिष्कृत और संशोधित होता रहता हूं. जीवित गाछ-बिरछों के उनमान प्रस्फुटित करता रहता हूं. सघन होता रहता हूं.

खुलासा करने के लिए और अधिक पीछे जाना पड़ेगा अनिल, जब मैं सन 1948 से 1950 तक ‘ज्वाला’ साप्ताहिक में काम करता था. ‘ब्लिट्ज’ की साइज के सोलह पृष्ठ निकलते थे. नियमित रूप से तीन स्तंभ लिखता था - ‘हम सभी मानव हैं’, ‘दोजख की सैर’ और ‘घनश्याम, परदा गिराओ.’ तीनों स्तंभों में कथा की बुनावट रहती थी. मानववाले स्तंभ में आज के मुहावरे में सांप्रदायिकता के खिलाफ ‘एक मानव’ के नाम से मेरी कलम अबाध चलती रहती थी. ‘दोजख की सैर’ में विभागीय भ्रष्टाचार पर कटाक्ष का स्वरूप रहता था. वह भी कथा के माध्यम से. ‘घनश्याम, पर्दा गिराओ’ में राजनेताओं का पाखंड उजागर होता था. ये तीनों स्तंभ तो लिखता ही था, पर पूरे के पूरे सोलह पृष्ठ अपने हाथ से फेयर करके प्रेस में देता था. कलम मंजती रही. धार लगती रही.      
तब एक शिफ्त मुझमें और भी थी अनिल, कि लिखने के पूर्व-चाहे किसी विधा में लिखूं कविता, कहानी, गद्यगीत, निबंध या आलोचना-न कुछ सोचता था, लिखना शुरू करने के बाद न रुकता था. न काट-छांट करता था और न लिखे हुए को फिर से पढ़ता था. प्रारंभ से ही पत्र-पत्रिकाएं गले पड़ती गयीं, सो ये सब नखरे वहां चलते नहीं थे. हर रोज समय पर काम निपटाना पड़ता था.

पर मैंने बेगार कभी नहीं टाली. आधे-अधूरे मन से कभी काम नहीं किया. मैं काम को बेगार समझता ही नहीं, चाहे अपना हो, चाहे दूसरों का. संपूर्ण निष्ठा से करता हूं. काया के सांचे में मन और आत्मा उड़ेल कर. तुमने भी कई बार ठोक-बजाकर मेरे इस स्वभाव को जांचा-परखा है. इसे तुम मेरी बेवकूफी समझो या मेरी नादानी कि.. परिश्रम के साथ पारिश्रमिक को मैंने कभी जोड़ कर देखने की चेष्ठा ही नहीं की. हाथ लग जाये तो कोई ऐतराज नहीं, न लगे तो कोई आग्रह नहीं. बस, चाकू की धार तेज व टिकाऊ होनी चाहिए. फिर उससे प्याज काटो, चाहे आलू, लौकी या बैंगन. आसानी से कट जाते हैं. शुरुआत में हिंदी के रियाज से जो धार लगी, वह राजस्थानी में उसी कौशल से काम आयी. दृष्टि हमेशा ऊपर की ओर रखी कि शरीर से न भी हो, पर मन और आत्मा से बादलों पर चलूं. लहराती बिजलियों को बाहुपाश में भरूं और बादलों के बीच ही नहाऊं. धोऊं. चांदनी से प्यास बुझाऊं!        
मेरी रचनाओं में गहरी रुचि रखनेवाले परमहितैषी मुङो टोकते रहते हैं कि नये सृजन की कीमत पर राजस्थानी या हिंदी में पुनर्लेखन न करूं. पर मुङो इसमें प्रजापति-सा आनंद आता है. अपने ही हाथों रची सृष्टि को नया रूप प्रदान करना! यह तो अदम्य हौसले का काम है. मानों अपनी संतान को काट-कूटकर फिर से जीवित करने जैसा. जिस तरह मेरे भीतर स्रष्टा का स्वरूप नित्य-प्रति बदलता रहता है, तदनुरूप अपनी रचनाओं का रूप बदलते रहने की खातिर मेरी उत्कट अभिलाषा बनी रहती है.

यह तो पैदा किये बच्चों को वापस कोख में डालकर उसे पुनर्जन्म देना है. मेरी कशमकश को तनिक सहानुभूति से जांचो-परखो, अनिल! (अकस्मात बिजली गुल हो गयी. तीन बजे लिखने बैठा था. अब शायद पांच बजे हैं. विद्युत-मंडल की कटौती चल रही है. आजीवन चलती रहेगी.) लगता है अब तो बैटरी से चालित दो छोटी ट्यूबलाइटोंवाला चिराग खरीदना ही होगा. वरना यह कटौती तो मेरे पढ़ने-लिखने को काटती ही रहेगी. लेकिन कर्ज भी तो उतारना है. बोहरे का नहीं, मित्रों का ही. वे कभी तकादा नहीं करते.

करेंगे भी नहीं. इसलिए तो चिंता है. तपने से सोने में निखार आता है.अतएव जीवनभर परेशानियों की भरमार रही है. चलो, आर्थिक संकट का यह परोक्ष वरदान ही सही. दिन के चौबीस घंटों की अल्पावधि को सुनोयोजित करके इसी तरह बढ़ाया जा सकता है. तभी तो चालीस-बयालीस वर्षो से साढ़े तीन या पौने चार घंटे ही सोता हूं. इससे कम सोने पर झपकियां आने लगती हैं. खैर, यह शिकवा-शिकायत तो हर जिंदगी के साथ जुड़ी रहती है. सार्वजनकि रूप से रोने-धोन की बात शोभनीय नहीं लगती. मुस्कराने की चर्चा हो तो ठीक है. लिखते-पढ़ते समय सारे कष्ट संताप बिसर जाता हूं. दांत और अधरों के अलावा भीतर के हाड़-मांस, मज्जा, लहू और अंतड़ियों से मुस्कराता रहता हूं.    
(फिर प्रकाश ओझल) भयंकर खीज व झुंझलाहट हुई. छोटी-सी मोमबत्ती जला कर लिखने बैठा. सचमुच काम चल गया. अनिल तब तो दो मोटी मोमबत्तियों से बिजली की गरज पूरी हो सकती है. विश्वास रखो ‘फुलवाड़ी’ के अगले भागों में राजस्थान के प्रेमाख्यानों की सौरभ बिखेरूंगा. प्रेम के नये-नये फूल खिलाऊंगा. इसमें मेरी कलम काफी निष्णात है. वह तितली की नाई थिरकने लगती है.

इसलिए कि प्रेम के सिलसिले में असफल जो रहा हूं. उफ्फ तिरेपन वर्षो का सुदीर्घ इकतरफा यातायात! तुम तो जानते ही हो. छोड़ूं इस रामायण को.. अन्यथा राह भटक जाऊंगा. मोमबत्ती थोड़ी ही शेष रही है! सूर्योदय में मामूली वक्त बाकी है. काश! अजरुन के सखा कृष्ण मेरे लिए दो घड़ी पहले सूरज उदय कर दें, तो जयद्रथ के वध की बजाय, शब्दों में प्राण फूंकने के निमित्त ही गाण्डीव के बदले अपनी कलम चलाता रहूंगा. तब तक मोमबत्ती से सूरज की कमी पूरी हो रही है. मेरी कहानियों की तह में छिपे हुए ये अकिंचन आख्यान ही मेरे शब्दों की संजीवनी बूटी हैं.

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