24 December 2013

नौ वर्षों तक मिलजुल मन का शिल्प खोजती रही...

साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाजी गयीं  मृदुला गर्ग ने  रचनात्मक साधना की राह पर लम्बी और सार्थक यात्रा की है. पिछले साल  प्रीति सिंह परिहार ने मृदुला गर्ग से उनके रचनात्मक सफ़र पर  लम्बी बातचीत की थी . यहाँ इस बातचीत को आत्मवक्तव्य में ढाला गया है. अखरावट 



साहित्य मुझे बचपन से ही बहुत आकर्षित करता रहा है. नौ साल की थी तबसे ही मैंने साहित्यिक किताबें पढ़ना शुरू कर दिया था. घर में सभी को साहित्य पढ़ने का शौक था, इसलिए मुझे भी आसानी से हर तरह की महत्वपूर्ण साहित्यिक कृतियां उपलब्ध थीं. मैंने बहुत छोटी उम्र में ही शरतचंद्र और बिभूतिभूषण बंदोपाध्याय जैसे लेखकों की कृतियां पढ़ ली थीं.
लेकिन लेखन के बारे में तब कुछ सोचा नहीं था. हां, अपने आसपास के जीवन और स्थितियों को देखकर उन्हें व्यक्त करने की उथल-पुथल मन में जरूर चलती रहती थी. मैं साहित्य पढ़ती थी, लेकिन मैंने पढ़ाई अर्थशास्त्र से की और बाद में यही विषय पढ़ाने भी लगी. इसी बीच मेरी शादी हो गयी और मैं दिल्ली जैसे महानगर के माहौल से सीधे बिहार के एक छोटे से इंडस्ट्रियल कस्बे- डालमिया नगर आ गयी. यहां की जिंदगी बिलकुल अलग थी. आस-पास छोटे-छोटे गांव थे. गांव मैंने पहले भी देखे थे, लेकिन अक्सर गांव को लेकर हमारे दिमाग में एक तरह का नॉस्टेल्जिया होता है.
पर अब मैं गांव की विषम परिस्थितियों और व्याप्त शोषण को महसूस कर रही थी. यहां गरीबी, अकाल देखकर लगा कि इसे लिखना चाहिए. लेकिन कैसे? इन सब चीजों का उस अर्थशास्त्र से खास सामंजस्य बैठता नहीं था जो हमें तब साठ के दशक में पढ़ाया गया था. शुरू में मैंने अर्थशास्त्रीय विषयों पर लेख लिखे तब भी कहा गया कि ये लेख साहित्यिक ज्यादा लगते हैं. फिर लगा मैं जो कहना चाहती हूं वह साहित्यिक तरीके से ही व्यक्त हो सकता है, कहानी या उपन्यास के जरिए.
अब इसके लिए मुझे पात्र चाहिए थे, जिससे मैं समाज का बाह्य स्वरूप लिखकर ना रह जाऊं. लोगों के आंतरिक और व्यैक्तिक जीवन को पूरे भावनात्मक आलोड़न के साथ व्यक्त करूं. इसके साथ ही घर-परिवार भी आगे बढ़ रहा था. बच्चों के जन्म के बाद मेरी रचनात्मक ऊर्जा बहुत तेजी से विकसित हुई. बीत चुके जीवन से मेरा जुड़ाव शुरू हुआ. हमारे समय के मूल्य और व्यवस्थाओं से आमना-सामना हुआ. उनसे प्रेरणा मिली और पात्र भी.
मैंने छोटे बच्चों के रहते लेखन शुरू किया गुंजान माहौल में. इसी दौरान मैं बिहार से कर्नाटक की एक छोटी सी जगह बागलकोट आ गयी. यह तब इतना पिछड़ा इलाका था कि यहां स्कूल तक नहीं था. मैंने बागलकोट में अंगरेजी, हिंदी और कन्नड़ भाषा का एक स्कूल शुरू किया. स्कूल के लिए बहुत जद्दोजहद कर शिक्षक और प्रिंसिपल इकठ्ठा किये. यह मेरी जिंदगी का बहुत अहम पड़ाव था. मैं बच्चों को सांस्कृतिक गतिविधियों से जोड़ने लगी. इसी क्रम में स्कूल में मैंने मिड समर नाइट ड्रीम नाटक का मंचन कराया. नाटक में एक छोटे से बच्चे का अभिनय अभिभूत करने वाला था. उसे देखकर मुझे लगा कि हर इंसान के भीतर रचनात्मक ऊर्जा होती है.
इस एहसास के साथ मेरे भीतर भी रचनात्मक ऊर्जा विकसित होती रही. स्कूल और घर की व्यस्तता के बाद जो वक्त मिलता, मैं लिखने बैठ जाती थी. मुझे लगता है कि लिखने के लिए एक खास क्षण में जेहन में उभर रहे जुनून की बड़ी भूमिका होती है. कई बार आपके पास बहुत वक्त होता है, लेकिन आप लिख नहीं पाते. लेकिन, कई बार बहुत व्यस्तता के बाद भी समय चुराकर, रात भर जागकर भी आप लिखते हैं. मेरे साथ भी ऐसा ही होता है. मैं अपनी ज्यादातर कहानियां एक बैठक में ही पूरी करती हूं. मेरी ऐसी ही एक बहुत लंबी कहानी है कितनी कैदें. इसे मैंने एक रात के सफर में ट्रेन में लिखा था.
कई बार ऐसा होता है कि अरसे से दिमाग में खदबदा रही कहानी किसी उत्प्रेरक क्षण में सामने आकर खड़ी हो जाती है और मैं लिखने से खुद को रोक नहीं पाती. तब सबकुछ से वक्त चुराकर लिखना पड़ता है. लेकिन सबसे अधिक लेखन मैंने गर्मियों के दिनों में किया. इसलिए नहीं की मुझे यह मौसम पसंद है, बल्कि इसलिए क्योंकि इस समय बच्चों की परीक्षाएं हो जाती थीं और मेहमान भी बहुत कम आते थे. ऐसे में दिल्ली की गर्मी में बस एक कूलर मिल जाए और थोड़ा सा एकांत. वैसे मुझे बारिश बहुत उद्वेलित करती है. अपनी कहानी मीरा नाची मैंने बहुत तेज बारिश के दौरान बालकनी में बैठकर लिखी.
कई बार कुछ लिख लेने के बाद एक खालीपन के साथ बहुत सारा सुकून भी होता है और तब लगता है कि जिंदगी बस यहीं खत्म हो जाए, अब कोई तमन्ना बाकी नहीं. मीरा नाची शहर के नाम और डेफोडिल जल रहे हैं लिखने के बाद मैं इस अहसास से गुजरी. लेकिन उपन्यास पूरा होने के बाद मैं अकसर खालीपन और उदासी से घिर जाती हूं. ऐसा लगता है अपना जो कुछ बहुत निजी था, वह क्यों दे दिया. फिर इस मनोस्थिति से उबरने में वक्त लगता है. जरूरी नहीं की आपकी रचना पूरी होकर आपको संतोष ही दे. कहानी लिखने के बाद दर्द से छुटकारा मिलने जैसी अनुभूति होती है, लेकिन उपन्यास में अपना सबकुछ खो जाने का भाव होता है.
मैं कभी कोई योजना बनाकर, नोट्स लेकर नहीं लिखती. एक धुंधला सा ख्याल मन में चलता रहता है. पता भी नहीं होता कि वह लिखा जायेगा भी कि नहीं. लेकिन किसी एक उत्प्रेरक क्षण में वह धुंध मिट जाती है और सबकुछ साफ दिखायी देने लगता है. तब रचना शब्दाकार लेने लगती है. चितकोबरा उपन्यास मैंने 26 दिन में लिखा और यह 26 अध्याय में है. इसे बीच से भी पढ़ेंगे तो अधूरा नहीं लगेगा. लिखने के बाद मैंने इसे आरोह-अवरोह के क्रम में जमाया. इसमें एक स्त्री के प्रेम की कहानी है जहां सेक्स वजिर्त नहीं है.
लेकिन यह उपन्यास बहुत से गलत कारणों से चर्चा में रहा. इसे लेकर बेवजह का हल्ला मचाया गया जबकि मैंने इसमें एक स्त्री के शरीर और आत्मा से संबंधित विचारों को व्यक्त किया है. दरअसल, स्त्री की संरचना में द्वैत होता है- शरीर और दिमाग के बीच. मैं इसमें एक ऐसी प्रेम कथा कह रही थी जिसमें प्रेम पैशन था और विचार भी. एक ऐसी औरत की कथा जो भावप्रवण भी है और बहुत प्रज्ञावान भी. उसी प्रज्ञा और भावावेग के साथ 26 दिनों तक सुबह 4 बजे से 6 बजे तक मैं नियमित रूप से लिखती रही थी. 
रचना की प्रक्रिया जीवन के साथ हर पल चलती रहती है. मैं जब लिखना शुरू करती हूं, तो वह शुरुआत नहीं अंत होता है. मेरी रचना प्रक्रिया का पहला और शुरुआती हिस्सा शिल्प की खोज है. सोच और एहसास को शब्दों मे ढालने का सिलसिला रचना प्रक्रिया का अंतिम चरण होता है. यह अंतिम चरण कुछ घंटों में या कभी साल, डेढ़ साल में पूरा हो जाता है लेकिन इसके पूर्वार्ध में यानी शिल्प के जन्म में कितना समय लगेगा, कहा नहीं जा सकता.
मेरे उपन्यास ‘मिलजुल मन’ को लिखने का ऐलान मैंने 1998 में कर दिया था, लेकिन 9 साल तक इसका शिल्प नहीं सूझा.अचानक एक रात मुझे इसका शिल्प मिल गया. इसके बाद डेढ़ साल में यह उपन्यास पूरा हो गया. शिल्प किसी दबाव में या बहुत खोजने पर नहीं मिलता, कभी भी अचानक मिल जाता है. कई बार तेज बुखार में भी. मैंने अपनी कहानी ‘डेफोडिल जल रहे हैं तेज बुखार में लिखी है. मैंने बहुत भीड़ और गुंजान माहौल के बीच रहते हुए भी खुद को उससे काटकर अपना एकांत बनाया है और उसमें लिखा है.मेरा पहला ड्राफ्ट ही अंतिम होता है. इसके बाद उसे सिर्फ प्रूफ के लिहाज से ही पढ़ती हूं.
मैंने लेखन बहुत देर से शुरू किया और उसके बाद तेज रफ्तार में लिखती चली गयी. बाद में थोड़ा अंतराल आया, लेकिन ऐसा अंतराल कभी नहीं रहा कि लेखन में बाधक बन सके. जब उपन्यास नहीं लिख रही होती, तो लेख, कॉलम और कहानियां लिखती रही. यह बिलकुल ऐसे था जैसे पहाड़ी नदी मैदान में उतर आती है, तो धीरे चलने लगती है.
इन दिनों मेरा कुछ कहानियां लिखने का मन है और एक उपन्यास भी बहुत धुंधला सा है जेहन में. जिंदगी रही तो उसे भी लिख सकूंगी. फिलहाल जल्द ही पाठकों के सामने मेरी नयी कहानियां होंगी.
प्रीति सिंह परिहार युवा पत्रकार हैं. 

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