1 May 2013

अच्छा मनुष्य हुए बिना अच्छी कविता नहीं लिखी जा सकती : मंगलेश डबराल

‘शब्द’ ‘घर का रास्ता’ खोजते हैं और ‘गुजरात के मृतक का बयान’ बनकर एक ‘कविता’ में दर्ज हो जाते हैं.‘आवाज भी एक जगह है’ जो ‘तुम्हारे भीतर’ को ‘किसी दिन’‘राग मारवा’ में ले जाती है, जहां स्मृतियों का एक संसार है. यह संसार है हमारे समय के महत्वपूर्ण कवि मंगलेश डबराल की कविताओं का. मंगलेश जी से उनके सृजन संसार के बारे में कुछ दिन पहले बात की प्रीति सिंह परिहार ने. \यहां साक्षात्कार को आत्मवक्तव्य के रूप में ढाला गया है. अखरावट 




कोई बाहरी या भीतरी घटना जब तक मेरे संवेदन-तंत्र का हिस्सा नहीं हो जाती, तब तक उस पर लिखना संभव नहीं होता. लिखने का कोई तय समय भी नहीं. आमतौर पर रात में ही लिखता हूं. शुरू में सिर्फ दो-तीन पंक्तियां आती हैं, कभी वे कविता बन जाती हैं, कभी अधूरी रह जाती हैं. इस तरह अनगिनत पंक्तियां मेरे पास होंगी. 

मैं शायद अच्छाई को बचाने के लिए लिखता हूं. क्या बाजार, तकनीक और शोषण के भूमंडल में विचार, संवेदना और प्रकृति बचे रहेंगे? आदिवासी बनाम शहरी शोषक वर्ग के बीच की लड.ाई में कौन जीतेगा? क्या आदिवासियों से उनका सब कुछ लूट लिया जायेगा? एकध्रुवीय हो गये विश्‍व में हावी हो रही अमेरिकी दादागिरी से क्या एशिया बच पायेगा? एशिया विस्थापितों का शिविर बन रहा है. यह विस्थापन लोगों को कहां ले जायेगा? मेरी इस तरह की चिंताएं हैं, एक नागरिक के नाते और एक कवि के तौर पर भी. पोलैंड की कवयित्री विस्वावा शिम्बोस्र्का की एक कविता है कि ‘बीसवीं सदी में मनुष्य को एक साथ अच्छा और ताकतवर होना था. लेकिन अच्छा और ताकतवर आज भी दो मनुष्य हैं’ शायद इसलिए निराशा भी मेरी कविता में बार-बार आती है. लेकिन एक हवाई आशावाद की बजाय एक सी निराशा कहीं बेहतर है. 

एक रचनाकार के तौर पर मेरे साथ दूसरी मुश्किलें भी हैं. मुझे जो लिखना है, वो मैं नहीं लिख पाता हूं. कविता पूरी होने के बाद अकसर लगता है, यह वह नहीं, जो मैं कहना चाहता था. मेरी अपनी किताब, जिसे मैं पंसदीदा कह सकूं, मेरे पास अब तक नहीं है. वह शायद मेरा आने वाला संग्रह हो. 

बचपन में जयंशकर प्रसाद की कहानियां, खासतौर पर ‘आकाशदीप’ मुझे किसी रहस्यमयी दुनिया में ले जाती थीं. इस प्रभाव में मैंने शुरू में कहानियां लिखीं. अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ का ‘प्रियप्रवास’ मुझे कविता की ओर ले गया और मैं छंद में लिखने लगा. बाद में छंद का जादू टूटा. कुछ मित्रों के कारण मैं आधुनिक कविता के संपर्क में आया. तब मेरी कविता बदली और बदलती चली गयी. कहानियां भी लिखता रहा, जो ‘सारिका’,‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ आदि में प्रकाशित भी हुईं. बाद में कहानियां लिखना छूटता गया. इसका एक बड.ा कारण शायद समय की कमी रही. लेकिन, गद्य मुझे हमेशा से आकर्षित करता रहा है. 

गद्य जीवन के व्यवहार की भाषा है और कविता शायद इस व्यवहार की विशिष्ट गतिविधि. गद्य का ही एक परिष्कृत रूप. त्रिलोचन जी कहते थे कि कविता, कहानी, उपन्यास जो भी लिखो, लेकिन पूरा वाक्य लिखो. जितनी भी बड.ी कविताएं हैं, वे गद्य में हैं. ‘घन घंमड नभ गरजत घोरा/ प्रियाहीन डरपत मन मोरा’ गद्य ही है. कवियों का निकष गद्य है. फारसी में एक कहावत है, अच्छी नज्म वो है, जिसे नस्र यानी गद्य में न बदला जा सके. लेकिन अब अच्छा गद्य दुर्लभ होता जा रहा है. 

इस समय व्यापक स्तर पर विपुल कविता लिखी जा रही है. इसका एक कारण बाजार के दबाव से उपजी कशमकश भी है. समाज एक तरह के संक्रमण से गुजर रहा है. एक ओर संपत्र बनने का दबाव है, दूसरी ओर जीवन की सार्थकता का. सूचना का विनिमय बहुत तेजी से बढ.ा है. ये सूचनाएं दिमाग में एक हलचल पैदा कर ही रही हैं. जगह-जगह पहचान और अस्मिता का संघर्ष जारी है. इन सबसे अभिव्यक्ति की भूख भी बढ.ी है. 

लेखन बडे. पैमाने पर हो रहा है, लेकिन आलोचना के प्रतिमान ध्वस्त हुए हैं. जीवन के दूसरे क्षेत्रों में भी आलोचनात्मक नजरिया नहीं रह गया है. अमेरिका से जो कुछ हमारे पास आ रहा है, हमने मान लिया है कि वह सब अच्छा है. मध्यवर्ग कोई सवाल नहीं उठा रहा, सिर्फ ‘रिसीविंग एंड’ पर है. यह साहित्य में भी है. अच्छी रचना से खराब रचना को अलग करने का विवेक कम हो रहा है. लेकिन कोई छलनी है, जो अपने आप छानती रहती है चीजों को. कोईरचना अच्छी है या बुरी, इसे समय तय करता है. एक सांस्कृतिक प्रक्रिया है, जो अच्छे को अपना लेती है और खराब को किनारे कर देती है. ऐसा कभी नहीं हुआ कि कोई खराब लेखक, महान लेखक हो गया. 

अच्छा मनुष्य हुए बिना अच्छी कविता नहीं लिखी जा सकती. यहां अच्छाई का अर्थ संवेदनशील होने से है. दूसरों के दर्द को अपने दर्द की तरह महसूस करने से है. यथास्थिति में बदलाव की चाह से है. अन्याय, शोषण, असमानता के खिलाफ खडे. होने से है. परिस्थितियां भी बहुत हद तक लेखक को बनाती हैं. हालांकि अब लेखक होने की अवधारणा बदल रही है. चीजों की अद्वितीयता भी समाप्त हो रही है. उत्तर-आधुनिकतावादियों ने कहा कि किताब को भूल जाइए. यह सिर्फ टेक्स्ट है, इसे चाहे ‘एक्स’ ने लिखा हो या ‘वाई’ने. यह एक बड.ा बदलाव था. बेहतर है या नहीं, मैं नहीं कह सकता. लेकिन इस बदलाव से अब इंकार नहीं किया जा सकता. 

किसी सभ्यता को बहुत उत्रत ढंग से देखने के बाद, उसे खंडहर होते देखना असहनीय है. शायद इसलिए मैं घर से कतराने लगा. उस घर को, जिसे बहुत अच्छी स्थिति में देखा हो, कातर हालात में देखना कठिन था. मेरे पहले संग्रह ‘पहाड. पर लालटेन’ में शायद यह कचोट है. पहाड., जहां मेरा बचपन बीता, मेरी कविताओं में उससे मेरा एक विचित्र और द्वंद्वपरक संबंध है. मैं जहां रहने आया वहां की कठिनाई और पहाड. के जीवन की स्मृति दोनों की टकराहट है. ब्रेख्त की एक पंक्ति मुझे बहुत प्रिय है : ‘पहाड. की यातनाएं मेरे पीछे हैं और मैदान की यातनाएं मेरे आगे.’ एक बार जनसत्ता के संस्थापक-संपादक प्रभाष जोशी और उनकी पत्नी गंगोत्री गये, तो मेरे घर भी रुके. मैं साथ में था. घर में पिता जी, मां और बड.ी बहन थी. प्रभाष जी ने मेरे माता-पिता से पूछा कि क्या यह घर आता है? पिता जी ने कहा इसने ‘घर का रास्ता’ किताब तो मुझे सर्मपित कर दी, लेकिन खुद घर का रास्ता भूल गया.

संगीत से मेरा लगाव रहा है और मुझे लगता है, अमीर खां साहब से बड.ा चितंनशील और दार्शनिक गायक बीसवीं शताब्दी में तो नहीं हुआ. वे एक महान शख्सीयत थे. उन्होंने संगीत को दरबारों और संपत्र लोगों से मुक्त किया है. लेकिन उन्हें बहुत मुसीबतें सहनी पड.ी. लोगों ने कहा, आपके पास न कोई स्पष्ट घराना है, न वैसी आवाज है. उनका घराना मुश्किल से ही तैयार हो पाया, लेकिन उन्होंने जो संगीत रचा, वह अद्भुत है. अमीर खां साहब पर मेरी कविता एक कोशिश है, हमारे सांगीतिक अंतर्विरोध को स्पष्ट करने की. दूसरी बात, संगीत तनाव को विसजिर्त करता है और उदात्तता की तरफ ले जाता है, लेकिन अमीर खां साहब का गायन तनाव को विसजिर्त नहीं करता, बल्कि र्शोता में एक रचनात्मक तनाव भर देता है. 

मैंने मृतक लोगों पर भी कविताएं लिखीं. गोरख पांडे, मोहन थपलियाल, करुणानिधान हों या गुजरात के मृतक, इनका मरना कुछ मूल्यों की मृत्यु थी. इनका जीवन बहुत ऊबड.-खाबड. रहा, लेकिन इन्होंने कभी कोई समझौता नहीं किया. एक कवि और क्या कर सकता है, कविता में इन्हें जीवित करने के सिवा! विदा हो चुके लोग जब किसी रचना में आ जाते हैं, उसमें जीने लगते हैं. कोई भी जब पत्रा पलटता है, उनका जीवन चल पड.ता है.

इस भयानक समय में साहित्य मनुष्य को बचाने की कोशिश तो करता ही है. बचा पाता है या नहीं, यह अलग बात है. लेकिन ऐसी बहुत सी घटनाएं हुई हैं, जब किसी रचना को पढ.कर लोगों का जीवन बदल गया. घोर निराशा से निकल कर उन्होंने फिर से जीना शुरू किया. समाज की स्मृति और संवेदना में रचनाओं का असर देर-सबेर होता है. अगर हमारा एक विशाल पढ.ा-लिखा तबका शोषण, असमानता, अन्याय के विरुद्ध है, तो उसकी संवेदना पर प्रेमचंद के उपन्यासों का कोई प्रभाव जरूर रहा होगा. साहित्य की सार्थकता मेरे लिए यही है. 

                               प्रीति सिंह परिहार युवा पत्रकार हैं 

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