6 March 2013

समानांतर सिनेमा का भारतीय चेहरा


रुक जाना जिंदगी नहीं ..




उम्र के 9 दशक पार कर चुके मशहूर फिल्म निर्देशक मृणाल सेन की गिनती सत्यजीत रे, ऋत्विक घटक के साथ विश्वस्टेज पर भारतीय समानांतर सिनेमा को पहचान दिलाने वाले शख्स के तौर पर की जाती है. अपने कैरियर की शुरुआत में ही भुवन सोम जैसी युगांतकारी फिल्म बनानेवाले मृणाल सेन के नाम एक से बढ़ कर एक यादगार फिल्मे दर्ज है। सिनेमा के सौवें साल में मृणाल सेन के  फ़िल्मी सफ़र से रूबरू कराता यह छोटा सा लेख. 


‘अंतिम कुछ नहीं होता, किसी पड़ाव पर कदमों का रुक जाना जिंदगी नहीं.’ जिंदगी के 90वें वर्ष की दहलीज पर बैठा कोई शख्स जब ऐसा कहता है, तो अचरच से भरी प्रसन्नता आस-पास फैल जाती है. और निराशा की धूल से धूसर होते वक्त का चित्र उजला लगने लगता है. ऐसा लगता है कि काश इन आंखों में तैरते उजास को कभी न समाप्त होने वाली किसी फिल्म की रील में भरा जा सकता. उम्र के इस पड़ाव में भी अथाह ऊर्जा और जिजीविषा से भरी इस शख्सीयत का नाम है मृणाल सेन.
हैरत यह सोच कर होती है कि हमेशा जीवन के कटु यथार्थ पर सिनेमा रचने वाले इस फिल्मकार की नजर आज भी सकारात्मक अनंत की ओर देखती है. इतनी स्याह सच्चइयों को नजदीक से देखने-परखने और उसे परदे पर अभिव्यक्त करने के बाद भी उनके पास ठहराव नहीं, हर रोज एक नयी फिल्म रचने का ख्याल होता है. मृणाल सेन भारत में यथार्थपरक सिनेमा रचने वाले प्रमुख फिल्मकारों में से एक हैं. सत्यजीत रे और ऋत्विक घटक के समकालीन मृणाल सेन ने बांग्ला भाषा के साथ हिंदी, उड़िया और तेलुगु में भी यादगार फिल्में बनायी हैं.

उनकी ख्याति वैश्विक पटल पर भारत के समानांतर सिनेमा की छवि बदलने वाले फिल्मकार के तौर पर भी है. पिछले एक दशक से उनका कैमरा भले खामोश है, पर उनका मन हर रोज एक नयी फिल्म की कहानी बुनता है और उसमें उसके किरदारों की बैठकी होती है.
14 मई 1923 को ब्रिटिश भारत के फरीदपुर, जो अब बांग्लादेश में स्थित है, में जन्मे मृणाल सेन कलकत्ता विश्वविद्यालय में अध्ययन के दौरान मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित हुए. यह प्रभाव उनकी फिल्मों में भी दिखता है. और इस विचारधारा के प्रति उनकी प्रतिबद्धता आज भी देखी जा सकती है. फिल्मकार बनने से पहले मृणाल सेन बतौर रिप्रेजेंटेटिव नौकरी करते थे. लेकिन साहित्य और फिल्मों से जुड़ी किताबें पढ़ने का शौक उन पर हावी था. फिल्मों से वे साउंड टेक्निशियन के तौर पर जुड़े.

इस जुड़ाव के दौरान ही उनके भीतर के फिल्मकार ने आकार लिया और 1955 में उन्होंने बांग्ला भाषा में पहली फिल्म ‘रात भोरे’ बनायी. इसके बाद महादेवी वर्मा की कहानी ‘चीनी फेरी वाला’ पर बांग्ला में ‘नील आकाशेर नीचे’ निर्देशित की. इन फिल्मों से उन्हें स्थानीय स्तर पर पहचान मिली और उनके सिनेमाई सफर की एक परिपक्व शुरुआत भी हुई.

1943 में बंगाल में पड़े भीषण अकाल पर आधारित उनकी तीसरी फिल्म ‘बाइशे श्रवण’ ने उनके लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान का रास्ता बनाया. वहीं ‘आकाश कुसुम’ ने उन्हें महान फिल्मकारों की श्रेणी में शामिल कर दिया. सेन ने 1969 में पहली हिंदी फिल्म ‘भुवन शोम’ बनायी. खूबसूरत भावों के स्पर्श से कैसे लोगों का मन बदलता है, इसमें यह काफी प्रभावी तरीके से दिखाया गया है. बहुत ही कम बजट में बनी इस फिल्म के लिए मृणाल सेन को बेस्ट निर्देशक का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिला. 1979 में ‘एक दिन प्रतिदिन’,1980 में ‘अकालेर संधाने’ और 1984 में ‘खंडहर’ फिल्म के लिए भी उन्हें बेस्ट निर्देशक का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिला.

‘पदातिक’,‘अकालेर संधाने’ और ‘खारिज’ के लिए वे बेस्ट स्क्रीनप्ले के लिए भी राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से नवाजे गये. ‘अकालेर संधाने’ को बर्लिन इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में सिल्वर बियर-स्पेशल ज्यूरी सम्मान मिला. ‘भुवन शोम’ के अलावा मृणल सेन ने हिंदी में ‘एक दिन अचानक’,‘खंडहर’,‘एक अधूरी कहानी’, ‘मृगया’,‘जेनेसिस’ जैसी यादगार फिल्में बनायीं.

बांग्ला और हिंदी के अलावा उन्होंने उड़िया भाषा में ‘मैत्रिया मनीषा’और तेलुगु में ‘ओका ओरी कथा’ बनायी. दोनों ही फिल्मों ने अपनी भाषा का बेस्ट फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार हासिल किया. मृणाल सेन ने फिल्में बनाने के साथ ही सिनेमा पर ‘न्यूज ऑन सिनेमा’ और ‘सिनेमा, आधुनिकता’ जैसी महत्वपूर्ण किताबें भी लिखीं. ‘आलवेज बीइंग बोर्न’ नाम से 2004 में उनकी आत्मकथा भी प्रकाशित हो चुकी है. फिर भी इस फिल्मकार को हम जितना जानते जाते हैं, लगता है अभी भी बहुत कुछ जानने को है.

2005 में मृणाल सेन को दादा साहेब फाल्के अवॉर्ड और 2008 में ओशियान सिनेफेस्ट फिल्म फेस्टिवल में लाइफ टाइम अचीवमेंट अवॉर्ड से सम्मानित किया गया. उन्हें पद्मभूषण पुरस्कार से भी सम्मानित किया जा चुका है. 2002 में आयी नंदिता सेन अभिनीत बांग्ला फिल्म ‘अमार भुवन’ के बाद से उनके निर्देशन में कोई फिल्म नहीं आयी है. लेकिन अपने साक्षात्कारों में वे कई बार कह चुके हैं कि ‘बेशक 2002 के बाद से मैंने कोई फिल्म नहीं बनायी, लेकिन मैं खुद को सेवानिवृत्त नहीं मानता.

अब भी मेरे दिमाग में नयी फिल्म का विचार चलता रहता है.’ एक बात जो, मृणाल सेन को परेशान करती है, वह है उनकी फिल्मों के प्रिंट का रखरखाव के अभाव में दिनों दिन जर्जर होते जाना. इन अमूल्य प्रिंटों को सहेजने की पहल कहीं नहीं दिखती. एक बड़े बैंक ने उन्हें हाल ही में फिल्म बनाने का प्रस्ताव दिया है. काश कोई उनके फिल्मों के प्रिंट को सहेजने की भी बात करता!
                                                                                                प्रीति सिंह परिहार

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