12 October 2011

फिर लुभायेगी नौटंकी


आज के समय को अगर इतिहास के लोप का समय कहा जा सकता है, तो इसे कुछ समर्पित लोगों द्वारा इतिहास को बचाने की कोशिश का दौर कहा जाना भी गलत नहीं होगा. यही वजह है कि नौटंकी और दास्तानगोई की ही तरह असम में सत्रिया को तो कर्नाटक में यक्षगान, महाराष्ट्र में संगीत नाटक और तमिलनाडु में हरिकथा को बचाने की कोशिश की जा रही है. पुराने कलारूपों को पुनर्जीवित करने की कोशिशों पर आज का रविवार. .
आजादी से पहले कानपुर शहर की एक शाम. गुलाब बाई गाना गा रही हैं- नदी नारे ना जाओ श्याम पय्यां पड़ूं ..
गुलाब बाई के इस दादरे की आवाज लोगों के कानों में गूंज रही है और उनकी भंगिमाओं को देखकर लोग सम्मोहन में बंधे जा रहे हैं. पूरी रात आवाज का जादू और जादू में डूबते-तिरते लोग. अब न गुलाब बाई हैं, न नौटंकी को लेकर किसी तरह की दीवानगी. नौटंकी की पहली महिला अदाकारा गुलाब बाई ने जब अपने जीवन की ओखरी सांसें लीं तब तक नौटंकी का चेहरा इतना कुरूप हो गया था कि इसके बारे में बात करना भी उन्हें गहरे अवसाद में डाल देता था.
नौटंकी क्वीन के नाम से पुकारी जाने वाली गुलाब बाई की मौत के पंद्रह साल बाद नौटंकी का भविष्य भले स्वर्णिम न कहा जा सकता हो, लेकिन कुछ समर्पित लोग नौटंकी को फ़िर से उसकी खोयी पहचान वापस दिलाने की कोशिश में जुटे हैं. उसी कानपुर शहर में जहां गुलाब बाई ने अपने ग्लैमर, अभिनय और गायकी की बदौलत राज किया था, नौटंकी को फ़िर से जीवित करने की कोशिश रंग लाती दिख रही है.
किसी जमाने में उत्तर भारत में आम लोगों के मनोरंजन का सशक्त माध्यम रहा यह लोककला रूप आज नकारात्मक वजहों से ज्यादा जाना जाता है. व्यावसायिकता के दबाव में मनोरंजन का साफ़ सुथरा रूप गायब होता गया और नौटंकी के नाम पर ईलता का कारोबार किया जाने लगा. गुलाब बाई की मौत के बाद गुलाब थियेटर कंपनी को संभालने वाली उनकी बेटी मधु अग्रवाल कहती हैं कि ‘इस बात की समझ समाज से धीरे-धीरे गायब होती गयी कि नौटंकी एक लंबी परंपरा से विकसित हुआ कला रूप है. नौटंकी में कला को, अभिनय परंपरा को पूरी तरह दरकिनार कर दिया गया.’
इस कहानी को नया मोड़ देने की कोशिश कुछ वर्ष पहले कानपुर में शुरू हुई. नौटंकी को उसके गौरवमयी स्वरूप में फ़िर से जीवित करने के लिए जिन लोगों ने महत्वपूर्ण काम किया है उनमें हरीश चंद्रा का नाम प्रमुख है. उस्ताद राशिद खां के शिष्य चंद्रा नौटंकी से जुड़े वाद्य नक्कारा के कुछ बचे हुए सिद्धहस्त कलाकारों में से एक हैं. चंद्रा ने नौटंकी को बचाने के लिए कानपुर में नौटंकी प्रशिक्षण केंद्र की स्थापना की.
आज यह संस्था संगीत नाटक अकादमी की मदद से राज्य के कई शहरों में हरिश्चंद्र, तारामती, पूरणमल, बहादुर लड़की, दिल की खता, बेटी की कुर्बानी जैसे शो का प्रदर्शन कर चुकी है. इनमें से ज्यादातर प्रदर्शन सरकार की तरफ़ से प्रायोजित रहे हैं और प्रदर्शनों को शहरों में ही किये जाने पर जोर दिया गया है. नौटंकी से जुड़े लोगों के साथ ही शहर के बुद्धिजीवी भी इस मृत होती विधा को बचाने के लिए सामने आये हैं. नौटंकी के लिए यह बड़ी बात है.
खासकर इसलिए, क्योंकि नौटंकी के स्वरूप में आयी विद्रूपता के कारण सभ्य लोगों ने इससे दूरी बना ली थी. हौसला देने वाली बात यह भी है कि दर्शकों ने भी इस प्रयास के प्रति सकारात्मक रुझान दिखाया है. लेकिन नौटंकी के इस नये सफ़र को आगे ले जाने की राह में कई दिक्कतें हैं. नौटंकी पेशे से जुड़े हुए लोग बताते हैं कि सबसे बड़ी समस्या नये स्क्रिप्ट का न होना है. अभी भी ज्यादातर शो पुराने स्क्रिप्ट के आधार पर किये जा रहे हैं. साथ ही ओर्थक संसाधनों में कमी बड़ी समस्या पैदा कर रही है.
अभी भी नौटंकी को उस तरह से सरकारी मदद नहीं मिल रही है, जितनी की पश्चिमी नाट्य शैली को विकसित करने के लिए दिल्ली के राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय को मिलती है. नौटंकी को फ़िर से जीवित करने को लेकर कई तरह के राय हैं. नाटककार ह्रषीकेश सुलभ का मानना है कि ‘सिर्फ़ नौटंकी को पुनर्जीवित करने के लिए पुनर्जीवित करना लक्ष्य नहीं हो सकता. वे कहते हैं कि नौटंकी के तत्वों का नाटकों में भी इस्तेमाल हो रहा है. नौटंकी के कई सारे तत्व थिएटर के लिए उपयोगी हैं. उनका उपयोग किया जाना चाहिये.’
जिन विधाओं को फ़िर से जीवित करने की कोशिश की जा रही है उनमें दास्तानगोई ने हाल के दिनों में काफ़ी लोकप्रियता हासिल की है. दास्तानगोई 16 वीं शताब्दी में फ़ारस में जन्मा कला रूप है. कहा जाता है कि सम्राट अकबर भी दास्तानगोई के बड़े प्रशंसक थे. दास्तानगोई में युद्ध और योद्धाओं की, जादूगरों और शैतानों, राजाओं और महारानियों के किस्से सुनाने का प्रचलन है. भारत में इसे जिन लोगों ने फ़िर से लोकप्रिय बनाने का काम किया है, उनमें महमूद फ़ारूकी, दानिश हुसैन के नाम प्रमुख हैं. मशहूर अभिनेता नसीरूद्दीन शाह ने भी इनके साथ मिलकर दास्तानगोई का प्रदर्शन किया है. फ़ारूकी खुद इतिहासकार हैं.
दास्तानगोई में हालांकि समकालीन जीवन से जुड़े प्रसंगों के भी किस्से कहे जाते हैं, लेकिन इसका मुख्य आधार आमिर हम्जा की कहानियां हैं. इसका एक अध्याय तिलिस्म-ए-होशरुबा दास्तानगो ( दास्तान सुनाने वालों ) का सबसे पसंदीदा है. फ़ारूकी जैसे लोग दास्तानगोई को अपनी तरह से विकसित कर रहे हैं. पूरे प्रदर्शन के दौरान कपड़े के चुनाव से लेकर कहानी सुनाने की शैली तक को आज के समय के हिसाब से विकसित किया गया है. इसके पीछे एक वजह यह भी है कि दास्तानगोई का कोई रिकॉर्ड मौजूद नहीं है.
दास्तानगोई के जानकार दिल्ली के कहानीकार अशोक गुप्ता कहते हैं कि दास्तानगोई अपने मौजूदा समय की बात सामने रखती है. नौटंकी और रास जैसी विधाओं में बयान किये जाने वाले किस्से एकदम प्रासंगिक संदर्भो को छूते हैं. अक्सर यथार्थ की लीक से परे हट कर ही ठोस यथार्थ के मसलों का हल पाया जाता है. दरअसल, मनबहलाव उसी प्रस्तुति से होता है, जो आदमी को उसकी मुश्किलों को पार करने की राह दिखाती है.
एक तरह से आज के समय को अगर इतिहास के लोप का समय कहा जा सकता है तो इसे कुछ समर्पित लोगों द्वारा इतिहास को बचाने की कोशिश का दौर भी कहा जा सकता है. यही वजह है कि नौटंकी और दास्तानगोई की ही तरह असम में सत्रिया को तो कर्नाटक में यक्षगान, महाराष्ट्र में संगीत नाटक और तमिलनाडू में हरिकथा को बचाने की कोशिश की जा रही है.
असम में सत्रिया नृत्य का जन्म आज से करीब 600 साल पहले हुआ था. यह नृत्य गुम होने के कगार पर पहुंच गया था, लेकिन इंदिरा और मोतीलाल बोरा के प्रयासों से आज संगीत नाटक अकादमी ने इसे शास्त्रीय नृत्य के दर्जे से नवाजा है. बोरा ने सत्रिया के मूल तत्वों को बचाते हुए इसमें आज के समय के हिसाब से कई बदलाव किये हैं.
उन्होंने गुवाहाटी में कलाभूमि नामक संस्था का गठन किया जिसके संरक्षकों में कपिला वात्स्यायन, भुपेन हजारिका और सुनील कोठारी जैसे प्रतिष्ठित लोग हैं.हरिकथा किसी जमाने में तमिलनाडू में काफ़ी लोकप्रिय थी. थंजावुर में 17वीं सदी में मराठा शासन के दौरान इसकी शुरुआत हुई. इसमें तमिल कहानियों और मराठी कीर्तन का अनूठा संगम देखने को मिलता है.
हरिकथा को लोकप्रिय बनाने में अहम भूमिका निभाने वाली सुचित्रा बालासुब्रमन्यम पिछले तीन सालों में देश भर में पांच सौ से ज्यादा हरिकथा प्रस्तुतियां दे चुकी हैं. देश के विभिन्न कोनों में संस्कृतिकर्मी गुम होते कला रूपों को बचाने की कोशिशों में लगे हुए हैं. सबसे बड़ी बात यह है कि ये कोशिश महज सांस्थानिक किस्म के नहीं हैं, बल्कि आम लोग और बुद्धिजीवी भी इसमें योगदान दे रहे हैं.

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